महाभारत व हड़प्पा काल से जुडी है प्रथा, ‘ रेवड़ी कल्चर ‘ का इतिहास जानकर चौंक जाएंगे आप !

भले ही रेवड़ी संस्कृति की बहुत चर्चा हो रही हो, लेकिन वास्तव में हड़प्पा से लेकर महाभारत और सिकंदर काल तक रेवाड़ी संस्कृति के उदाहरण हैं

देश के प्रधानमंत्री ने कुछ ही पहले रेवड़ी कल्चर को लेकर बयान दिया था। जिसके बाद विपक्ष की आम आदमी पार्टी की सरकार ने इसपर जमकर पीएम मोदी पर हमला बोला था। लेकिन क्या आपको पता है इस रेवड़ी कल्चर की शुरुवात आख़िरकार कहाँ से हुई ? आज भले ही रेवड़ी संस्कृति की बहुत चर्चा हो रही हो, लेकिन वास्तव में हड़प्पा से लेकर महाभारत और सिकंदर काल तक रेवाड़ी संस्कृति के उदाहरण हैं।

उस समय तिल जलाने की प्रथा थी

ऐतिहासिक जानकारी के अनुसार तिल की भुनी हुई गांठ 2000 ईसा पूर्व हड़प्पा में मिली थी। जिसमें भुने हुए अनाज के साथ गेहूं और मटर मिलाई गई थी। इससे यह देखा जा सकता है कि उस समय तिल जलाने की भी प्रथा थी। यह एक परंपरा थी जो किसी भी मूर्ति पूजा और त्योहारों को मनाने के ब्राह्मणवादी तरीके से पहले से ही थी और आज भी लोहड़ी के रूप में जीवित है।

प्रियजनों व जरूरतमंदों के लिए जरुरी है

संयोग से तिल और गुड़ बांटने की परंपरा सदियों से चली आ रही है। चाहे वह रेवाड़ी, चिक्की, तिलकुट या लड्डू के रूप में ही हो। प्राचीन काल में तिल का दान सबसे अच्छा माना जाता था। महाभारत का जिक्र करते हुए खाद्य इतिहासकार केटी आचार्य कहते हैं, “यह परंपरा अपने गुणों के साथ जारी है और रहेगी। यह एक सदियों पुरानी परंपरा है जोकि प्रियजनों व जरूरतमंदों के लिए जरुरी है। ”

देने का प्रमाण पुरानी परंपराओं से आता है

आचार्य अपनी पुस्तक ए हिस्टोरिकल डिक्शनरी ऑफ इंडियन फ़ूड (1998) में, ग्रीक लेखक अरिस्टोबुलस का हवाला देते हुए बताते हैं कि सिकंदर के साथ उनके अभियानों में शामिल लोगों के पास भारतीय बाजारों में गुड़ के समान कुछ था। अरिस्टोबुलस ने लिखा है कि स्पष्ट संकेत हैं कि दूसरों को लाभ के कार्य के रूप में देने का प्रमाण पुरानी परंपराओं से आता है।

व्यापक रूप से उपयोग किया जाता है

इसका उदाहरण आप मकर संक्रांति पर दिए गए उपहारों में देख सकते हैं। जिसमें भारत में तिल और गुड़ के लड्डू, गजक और चिक्की का व्यापक रूप से उपयोग किया जाता है। इस मौके पर लोग अपने चाहने वालों और जरूरतमंदों को चावल, दाल और कपड़े गिफ्ट करते हैं।

यानि की हम आसान भाषा में कह सकते है कि रेवड़ी बाँटने कि प्रथा का शुभारंभ आधुनिक भारत से नहीं प्राचीन भारत से जारी है। जोकि आगामी वर्षो में भी निरंतर जारी रहने की उम्मीद है।

 

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