विरासत की बात : नवाबों के शहर की तहजीब को समेटे है ये रेलवे स्टेशन

एक खासियत यह भी है कि कितने भी शोर-शराबे के साथ ट्रेन प्लेटफार्म पर आए उसकी आवाज चारबाग स्टेशन के बाहर नहीं आती है।

विश्व में सबसे बड़ा रेलवे नेटवर्क कहे जाने वाला भारतीय रेलवे अपनी खूबसूरती के लिए भी जाना जाता है। खासकर अगर बात लखनऊ के चारबाग रेलवे स्टेशन ( railway station ) की जाए। चारबाग रेलवे स्टेशन के इतिहास पर एक नजर डालें तो नवाब आसिफुद्दौला के पसंदीदा बागों में से एक था।

चहार बाग बाद में बदलकर चारबाग

चारबाग़ के बारे में जिक्र करते हुए इतिहासकार लिखते हैं कि किसी चौपड़ की तरह चार नहरें बिछाकर चार कोनों पर चार बाग बनवाए गए थे। इस तरह के बाग़ों को फारसी ज़बान में चहार बाग कहा जाता है। यही चहार बाग बाद में बदलकर चारबाग कर दिया गया। 21 मार्च 1914 को बिशप जॉर्ज हरबर्ट ने चारबाग रेलवे स्टेशन की बुनियाद रखी थी। अंग्रेजो के द्वारा बनवाए गए रेलवे स्टेशन के उत्तर में चारबाग की बुनियाद पड़ी थी। उसी दौरान अंग्रेज सरकार ने बड़ी लाइन के एक शानदार स्टेशन की योजना बनाई।

नवाबों को मुआवजे में मौलवीगंज और पुरानी इमली का इलाका

अंग्रेज अधिकारियों को मोहम्मद बाग और आलमबाग के बीच का यह इलाका बहुत पसंद आया। यह वह दौर था जब ऐशबाग में लखनऊ का रेलवे स्टेशन था चारबाग और चार महल के नवाबों को मुआवजे में मौलवीगंज और पुरानी इमली का इलाका देकर यहाँ ट्रैक बिछा दिए गए और इस तरह 21 मार्च 1914 को इसकी बुनियाद पड़ गई।

ट्रेन की आवाज चारबाग स्टेशन के बाहर नहीं आती

चारबाग रेलवे स्टेशन की वैसे तो कई खासियत है मगर उनमें से एक खासियत यह भी है कि कितने भी शोर-शराबे के साथ ट्रेन प्लेटफार्म पर आए उसकी आवाज चारबाग स्टेशन के बाहर नहीं आती है। इसी स्टेशन पर महात्मा गांधी और पंडित जवाहरलाल नेहरू की पहली मुलाकात भी हुई थी। महात्मा गांधी 26 दिसंबर 1916 को पहली बार लखनऊ आए थे।

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