अंतराष्टीय महिला दिवस : देवियों को पूजने वाले इस दानवी सोंच का अंत आखिर कब ?
क्यों हर बार एक महिला को समाज में ये बताना पड़ता है कि वो भी इस समाज का जरुरी हिस्सा है ?
मानव का पूर्ण रूप। हर देश की लगभग आधी आबादी। एक खुशहाल परिवार का मजबूत स्तम्भ। आपत्तिकाल में कंधे से कन्धा मिलाकर चलने वाली साथी। लेकिन इन सबके बावजूद समाज ( society ) में अपने हक व स्वाभिमान के लिए लड़ने के लिए मजबूर।
समाज को ये बताना हो
आज 8 मार्च है यानि अंतराष्टीय महिला दिवस। ऐसा दिन जिसमे समाज को ये बताना हो की महिलाएं भी पुरुषों से कम नहीं है। ये बताना हो की अगर उसे मौका दिया जाए तो भी परिवार, समाज व देश का नाम ऊँचा कर सकती है। महिला दिवस पहली बार 1909 में अमेरिका के न्यूयोर्क शहर में मनाया गया था। और अंतर्राष्टीय मंच पर इसे मानाने की घोषणा 1910 व 1911 में करी गई।
पुरुषों के बराबर खड़ी दिखाई
महिलाओं ने दुनिया में अपने हक़ को लेकर लड़ाई 1917 में रूस से शुरू की है। बात अगर भारत कि करी जाए तो यहां भी शिक्षा के क्षेत्र में बेटियां बढ़ती हुई दिखाई दे रही है। 2020 से लेकर 2022 में साक्षरता दर बेटियों कि बढ़ी है। रक्षा के क्षेत्र में भी उनके लिए स्थान खोले गए है। तो वहीँ व्यापार, तकनीकि, राजनीति व रिसर्च जैसे कई क्षेत्रों में अपने आप को पुरुषों के बराबर खड़ी दिखाई दी हों। साथ ही उस सोच पर कड़ा प्रहार किया जो उनको कमजोर आंकता था।
इस दानवी सोंच वाले समाज का अंत कब ?
लेकिन कुछ सवाल फिर भी खड़े होते है। कि हर बार एक महिला को समाज में ये क्यों बताना पड़ता है कि वो भी इस समाज का जरुरी हिस्सा है ? हर बार उसे क्यों अपनी आवाज उठाने पर खामोश रहने कि सलाह दी जाती है ? आखिर कब ख़त्म होगा देवियों को पूजने वाले इस दानवी सोंच वाले समाज का अंत ?