2024 का सेमीफाइनल है निकाय चुनाव, किसका क्या है दांव !
उत्तर प्रदेश में नगर निकाय चुनाव के पहले चरण का मतदान शुरू हो गया है। क्योंकि नगर निकाय चुनाव के बाद लोकसभा के चुनाव होने हैं,
लखनऊ। उत्तर प्रदेश में नगर निकाय चुनाव के पहले चरण का मतदान शुरू हो गया है। क्योंकि नगर निकाय चुनाव के बाद लोकसभा के चुनाव होने हैं, जिसके चलते इसे 2024 के सेमीफाइल के तौर पर भी देखा जा रहा है। सत्ताधारी बीजेपी से लेकर विपक्षी दल सपा, बसपा, कांग्रेस सहित सभी सियासी पार्टियों की प्रतिष्ठा इस चुनाव से जुडी हुई है। ऐसे में सवाल उठता है कि शहरी निकाय चुनाव में किस सियासी दल का क्या दांव पर लगा है?
आपको बता दें कि उत्तर प्रदेश की 762 नगरीय निकाय में से 760 निकायों में चुनाव हो रहे हैं, जिसमें नगर निगम महापौर, नगर पालिका और नगर पंचायत अध्यक्ष की सीटें शामिल हैं। इसके अलावा करीब 13 हजार वार्ड पार्षद पद के लिए भी चुनाव हो रहे हैं।
बीजेपी की साख दांव पर
नगर निकाय चुनाव में सबसे ज्यादा प्रतिष्ठा बीजेपी की दांव पर लगी है. बीजेपी नगर निकाय चुनाव में बेहतर प्रदर्शन करती रही है और सरकार में रहते हुए उस पर बड़ा दबाव है. बीजेपी ने पिछले नगर निगम चानाव में बेहतर प्रदर्शन किया था, लेकिन नगर पालिका और नगर पंचायत में पिछड़ गई थी। बीजेपी को सपा और निर्दलीयों ने कड़ी टक्कर दी थी. नगर पंचायत अध्यक्ष के चुनाव में बीजेपी से दो गुना ज्यादा निर्दलीय जीते थे। इस बार सपा और बसपा ने विधानसभा चुनाव के बाद से ही तैयारी शुरू कर दी थी, जिसके चलते बीजेपी की चुनौती बढ़ गई है।
2017 के चुनाव में बीजेपी 16 में से 14 नगर निगम में अपना मेयर बनाने में कामयाब रही थी. मेरठ और अलीगढ़ में बसपा के मेयर बने थे. इस बार शाहजहांपुर नया नगर निगम बना है, जिसकी वजह से 17 नगर निगम सीटों पर मेयर चुनाव हो रहे हैं। बीजेपी सभी 17 नगर निगम में अपना मेयर बनाने का प्लान बनाया है. मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ से लेकर डिप्टीसीएम तक की रैली की रूपरेखा बनाई गई है।
बीजेपी के लिए सबसे ज्यादा चुनौती नगर पालिका और नगर पंचायत सीटों पर जीत दर्ज करने की है, क्योंकि पिछली बार भी इन सीटों पर प्रदर्शन अच्छा नहीं था। खासकर मुस्लिम बहुल सीटें चुनौती बनी हुई हैं, लेकिन पार्टी इस बार कुछ मुस्लिमों को चुनावी मैदान में उतारकर बड़ा दांव चला है। बीजेपी की महिला मोर्चा टीम द्वारा जिला स्तर पर महिलाओं के लिए ‘सहभोज’ का आयोजन किया गया जिसे निकाय चुनाव से जोड़कर देखा जा रहा। सहभोज में दलित महिलाओं को खास तौर कर बुलाया गया था लाभार्थी महिलाओं को जोड़ने का खास तौर पर लक्ष्य रखा गया था , क्योंकि निकाय चुनाव में 37 प्रतिशत सीटें महिलाओं के लिए आरक्षित हैं।
सपा को जीत की जरुरत
उत्तर प्रदेश की सियासत में सपा 2022 विधानसभा चुनाव के बाद अब निकाय चुनाव में बीजेपी के विकल्प के रूप में बनाए रखना चाहती है. पिछले चुनाव में सपा एक भी मेयर सीट नहीं जीत सकी थी जबकि नगर पालिका और नगर पंचायत के चेयरमैन जरूर बनाने में सफल रही थी. सपा ने निकाय चुनाव की तैयारी काफी पहले ही शुरू कर दी थी और उसके लिए पर्यवेक्षक भी नियुक्त कर दिए थे, सपा इस बार निकाय चुनाव में नए राजनीतिक समीकरण के साथ उतरी है। यादव-मुस्लिम के साथ दलित कैंबिनेशन बनाने की कवायद अखिलेश यादव ने की है क्योंकि उन्हें शहरी क्षेत्र का सियासी समीकरण बेहतर तरीके से पता है।
दलितों को साधने के लिए सपा प्रमुख अखिलेश यादव ने कांशीराम की मूर्ति का अनावरण करने के बाद डॉ. अंबेडकर को भी अपनाने की कवायद की। 14 अप्रैल को संविधान निर्माता डॉ. भीमराव अंबेडकर के जन्म स्थान महू का दौरा किया। अंबेडकर की जयंती के दिन इस दौरे को सपा के बढ़ते दलित प्रेम के रूप में देखा गया। इतना ही नहीं सपा प्रमुख कानपुर में खटीक सम्मेलन भी शामिल हो चुके हैं. हालांकि, सपा के पास नगर निकाय चुनाव में खोने के लिए कुछ नहीं है, लेकिन बीजेपी के विकल्प बनने के लिए जरूर अहम है।
बसपा दोहरा पायेगी जीत ?
उत्तर प्रदेश में एक के बाद एक चुनाव हार रही बसपा के लिए निकाय चुनाव काफी अहम है। बसपा ने 2017 के इलेक्शन में दलित-मुस्लिम समीकरण के जरिए काफी बेहतर प्रदर्शन किया था। अलीगढ़ और मेरठ के नगर निगम में बसपा अपना मेयर बनाने में सफल रही थी जबकि तीन सीटों पर नंबर दो पर थी। बसपा इसी फॉर्मूले के जरिए इस बार के चुनावी रण में उतरने का फैसला किया, लेकिन सीटों के आरक्षण में हुए फेरबदल ने सारे अरमानों पर पानी फेर दिया। इतना ही नहीं उमेश पाल हत्याकांड में अतीक परिवार के नाम आने से मायावती का सारा खेल बिगड़ गया, ऐसे में बसपा के लिए नगर निकाय चुनाव में अपना करिश्मा को दोहरना बड़ी चुनौती है।
नगर निगम चुनाव के जरिए बसपा यूपी की सियासत में एक बार फिर से वापसी करना चाहती है, क्योंकि ये चुनाव 2024 का लिटमस टेस्ट माना जा रहा है। ऐसे में मायावती के लिए आगामी लोकसभा चुनाव काफी अहम है। 2019 में सपा के साथ गठबंधन कर बसपा जीरो से 10 पर पहुंच गई थी, लेकिन मायावती 2024 में अकेले चुनावी मैदान में उतरने का ऐलान कर दिया है। ऐसे में बसपा इस बार के निकाय चुनाव में सफलता हासिल करने में कामयाब नहीं रहती हैं तो लोकसभा चुनाव में उनके लिए राह काफी कठिन हो जाएगी। इसीलिए बसपा के लिए यह चुनाव अपने साख को बचाए रखने के लिए अहम है?
कांग्रेस खोल पायेगी खाता ?
यूपी में बीजेपी के बाद शहरी क्षेत्रों में किसी दल की पकड़ रही है तो वह कांग्रेस पार्टी थी, कांग्रेस सूबे के नगर निगम में अपने मेयर बनाती रही है, लेकिन पिछले चुनाव में खाता भी नहीं खोल सकी थी, इतना ही नहीं नगर पालिका और नगर पंचायत के चुनाव में कांग्रेस का प्रदर्शन कोई खास नहीं रहा था।
कांग्रेस शहरी क्षेत्रों में अपने खोए हुए सियासी जनाधार को दोबारा से पाने के लिए हरसंभव कोशिशों में जुटी है, जिसके लिए निकाय चुनाव पर खास फोकस कर रखा, प्रदेश अध्यक्ष बृजलाल खाबरी कमान संभालने के बाद से निकाय चुनाव की तैयारी में जुटे, कांग्रेस इन दिनों शहरी क्षेत्रों में मुस्लिम मतों को साधने के लिए रोजा इफ्तार का आयोजन किया गे। ऐसे में देखना है कि कांग्रेस क्या निकाय चुनाव के जरिए वापसी कर पाएगी?
शहरी क्षेत्र में किसकी कितनी पकड़ ?
2017 के नगर निकाय चुनाव में बीजेपी 16 नगर निगम में से 14 में अपना मेयर बनाने में सफल रही थी जबकि बाकी दो मेयर सीटें बसपा के खाते में गई थे। नगर पालिका के नतीजे देखें तो 198 शहरों में से बीजेपी 67, सपा 45, बसपा 28 और निर्दलीय 58 जगह पर जीते थे। ऐसे ही नगर पंचायत अध्यक्ष के चुनाव देखें तो 538 कस्बों में से बीजेपी 100, सपा 83, बसपा 74 और निर्दलीय 181 जगह जीत दर्ज की थीं। वहीं, उत्तर प्रदेश में नगर निकाय की सीटें इस बार बढ़कर कुल 760 हो गई है. सूबे में 545 नगर पंचायत, 200 नगर पालिका परिषद और 17 नगर निगम की सीटें हैं।
शहरी इलाकों में जातीय समीकरण
उत्तर प्रदेश के शहरी इलाके में सवर्ण और पंजाबी समुदाय के साथ दलित और मुस्लिम मतदाता निर्णायक हैं। नगर निगम से लेकर नगर पंचायत तक मुस्लिम मतदाता अहम रोल निभाते हैं। शहरी इलाके में देखें तो मुस्लिम, ब्राह्मण, कायस्थ, वैश्य, पंजाबी समुदाय से साथ दलितों में खटिक और बाल्मिकी जैसी जातियां अहम भूमिका अदा करते हैं।
बीजेपी ब्राह्मण-कायस्थ-वैश्य-पंजाबी और दलित समीकरण के जरिए शहरी इलाकों में जीत दर्ज करती रही है तो सपा और बसपा मुस्लिम वोटों के भरोसे अपना दम दिखाती हैं। दलित समुदाय शहरी इलाकों में बड़ी संख्या में नहीं है जबकि ओबीसी में यादव, कुर्मी, जाट जैसी नौकरी पेशा वाली जातियां हैं। इन्हीं जातियों के इर्द-गिर्द राजनीतिक दांव पेच खेले जा रहे हैं। अब ऐसे में देखना है कि इस बार निकाय चुनाव में किसका दांव कितना सफल रहता है?