#Independence Day Special: आजादी से पहले विदेशी धरती पर महिला ने फहराया ‘भारतीय झंडा’ !
हमारे देश का इतिहास कई महान शख्सियतों से भरा हुआ है। जिन्होंने देश के लिए बहुत सी कुर्बानियां दी है और देश के लिए बहुत कुछ किया है।
हमारे देश का इतिहास कई महान शख्सियतों से भरा हुआ है। जिन्होंने देश के लिए बहुत सी कुर्बानियां दी है और देश के लिए बहुत कुछ किया है ऐसी ही एक महान शख़्सियत थीं भीकाजी कामा। एक सदी पहले 21 अगस्त 1907 को पहली बार विदेश ( जर्मनी के स्टटगार्ट ) में भारतीय झंडा भीकाजी कामा (Bhikaji Cama) ने ही फहराया था। भीकाजी कामा ने वंदेमातरम लिखा भारतीय झंडा (Indian Flag) जर्मनी के स्टुटगार्ट में फहराया था। यह उस दौर की बात है, जब इंटरनेशनल सोशलिस्ट कॉन्फ्रेंस में भारतीय झंडे की जगह ब्रिटेन का झंडा फहराया जाता था, तो भीकाजी रुस्तम कामा ने इसका विरोध किया। उसने अपने बैग से एक छोटा तिरंगा निकाला। उस दौर में भीकाजी कामा ने भारतीय झंडा फहराकर सभी को हैरान कर दिया था।
भारत की आजादी के तिरंगे का जन्म
पारंपरिक पारसी साड़ी में सिर से पांव तक ढकी भारतीय महिला, अधिवेशन में चुप-चुप बातचीत का विषय बन गई। साथ ही मैडम कामा बेफिक्र रहीं।और उन्होंने कहा, “यह भारत की आजादी का झंडा है। देखिए, इसका जन्म हो गया है,” इस कार्यक्रम में उपस्थित सभी गणमान्य व्यक्तियों को यह सब चकित कर गया था।
सावरकर ने किया झंडा डिज़ाइन
जो झंडा भीकाजी कामा ने जर्मनी में फहराया था, वह भारतीय राष्ट्रीय ध्वज तिरंगे का प्रारंभिक रूप था. उस झंडे की भीकाजी कामा, श्याम कृष्ण वर्मा और विनायक दामोदर सावरकर ने मिलकर डिजाइन किया था. यह तिरंगे का एक प्रारंभिक अग्रदूत था जिसे अंततः 1947 में अपनाया गया था।
देश की आजादी के लिए लड़ी लड़ाई
भीकाजी कामा ने अपना जीवन समाजसेवा और परोपकार में समर्पित कर दिया। उन्होंने सिर्फ देश की आजादी की लड़ाई ही नहीं लड़ी बल्कि महिलाओं के अधिकारों और मताधिकारों के लिए भी उन्होंने लगातार आवाज उठाई। यही वजह थी कि रूस के लोग उन्हें ‘इंडियन जोन ऑफ आर्क’ कहते थे। जबकि भारतीय’ उन्हें ‘क्रांति की जननी’ करार दिया।
जब भारत स्वतंत्र होगा
देश की आजादी के बाद उनका मानना था कि, “जब भारत स्वतंत्र होगा, तो महिलाओं को न केवल वोट देने का अधिकार होगा बल्कि अन्य सभी अधिकार होंगे।” कामा का मानना था कि महिलाओं के लिए समानता और ब्रिटिश शासन से आजादी एक ही चीज है।
मुंबई में की पढ़ाई पूरी
भीकाजी कामा एक प्रभावी पारसी परिवार से ताल्लुक रखती थीं और उनके पिता सोराबजी फरामजी पटेल एक व्यापारी थे।, मैडम कामा का जन्म 24 सितंबर 1861 को बॉम्बे में हुआ था। भीकाजी कामा की शुरुआती पढ़ाई भी मुंबई में ही हुई। उन्होंने एलेक्जेंड्रा गर्ल एजुकेशन इंस्टीट्यूट में अपनी शिक्षा पूरी की।
राजनीतिक विचारों में थे अलग
भीकाजी कामा की शादी साल 1885 में रुस्तमजी कामा के साथ हुई थी लेकिन उनके और उनके पति के राजनीतिक विचारों में काफी फर्क था। रुस्तमजी कामा एक वकील थे और उन्हें ब्रिटिश और ब्रिटिश संस्कृति काफी पसंद थी। उनकी संस्कृति से वो काफी प्यार करते थे वहीं भीकाजी कामा अंग्रेजी हुकूमत को नापसंद करती थीं। भीकाजी कामा ने पारसी इंडियन सोसाइटी का गठन किया जो देश के क्रांतिकारियों की मदद करता था। भीकाजी कामा अधिकतर समय देश से बाहर रहीं और यूरोप और अमेरिका से देश की आजादी के लिए फंड जुटाती रहीं। लेकिन अंग्रेजों में भीकाजी कामा ने जो देखा वह भारतीयों का उनका निर्मम शोषण था।
प्लेग की चपेट में आई भीकाजी
साल 1896 में जब दुनिया में प्लेग महामारी फैली तो भीकाजी कामा को देखा कि वह वास्तव में कौन थीं ने वह उस वक्त भी देश में लोगों की सेवा करने में लगी थी एक सफेद एप्रन पहनकर अपने जीवन के सभी ऐशो आरामों को त्याग कर वह सेवा करने में जुटी रही।रोगियों की देखभाल करते हुए, वह प्लेग की चपेट में आ गईं। इसके बाद वह इलाज के लिए 1902 में लंदन चलीं गईं। भारत छोड़ दिया। भीकाजी कामा ने देश के कई क्रांतिकारियों की मदद की, इनमें सावरकर और सेनापति बापट जैसे नाम शामिल हैं।
भारत वापस जाने की मिली अनुमति
सावरकर की किताब फर्स्ट वार ऑफ इंडियन इंडिपेंडेंस को ब्रिटिश हुकूमत ने बैन कर दिया था लेकिन भीकाजी कामा ने इस किताब को भारत में चोरी-छिपे बंटवाया और इसका फ्रैंच भाषा में भी अनुवाद कराया। सावरकर को जब लंदन में गिरफ्तार कर लिया गया था तो उन्हें जेल से छुड़ाने में भी भीकाजी कामा की अहम भूमिका थी। जब अंग्रेजों ने 33 साल बाद भारत वापस जाने की अनुमति दी गई तो तो वह मुंबई में अपने जीवन दुबारा लौट आई लेकिन लंबे समय तक नहीं रहीं। 9 महीने बाद 1936 में उनका निधन हो गया और उन्होंने अपनी अधिकांश संपत्ति लड़कियों के लिए अवाबाई पेटिट अनाथालय को दान कर दी।
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