” राष्ट्रीय बालिका दिवस ” के 14 सालों में क्या ख़त्म हुआ पीढ़ियों से चला आ रहा ” वनवास ” ?
भारत देश में 24 जनवरी को ” राष्ट्रीय बालिका दिवस ” के रूप में हर वर्ष मनाया जाया है। 2008 में महिला एवं बाल विकास मंत्रालय और भारत सरकार के द्वारा देश की बेटियों ( girls ) को समाज में फैली उनके प्रति एक दूषित छवि को ख़त्म करना था। ‘ पराया धन ‘, ‘ बोझ ‘ व ‘ तुम लड़की हो ‘ जैसी छोटी सोंच रखने वाले समाज में देश की बेटियों को बेटों के बराबर का हक दिलाने के इरादे से सरकार ने कदम उठाया था।
फ्री शिक्षा के साथ आरक्षण
बात अगर सरकार द्वारा इस पर उठाये गए क़दमों की करें तो बेटियों की शादी की उम्र 21 वर्ष करने के साथ उसने शिक्षा के क्षेत्र में ” बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ ” के साथ स्कूलों व कॉलेजों में फ्री शिक्षा के साथ आरक्षण भी दिया है।
उनको समाज में आगे बढ़ने का अवसर
तो वहीं स्वास्थ के क्षेत्र में “भ्रूण हत्या पर रोक” , ” बेटी के जन्म पर जच्चा को सहायता राशि “, के साथ स्कूलों व कॉलेजों में मुफ्त सिनेटरी पैड्स व आयरन की गोलियां बांटकर उनको समाज में आगे बढ़ने का अवसर दिया जा रहा है। तो वहीं सुरक्षा की करें तो यौन अपराधों के लिए ” पास्को एक्ट “, सुनवाई के लिए ” फ़ास्ट ट्रैक कोर्ट ” का गठन किया गया है।
सवाल उठता है
अब सवाल उठता है की क्या इन ‘ 14 सालों ‘ में बेटियों का पीढ़ियों से चला आ रहा ‘ वनवास ‘ ख़त्म हुआ है ? क्या लड़की होने वाले ‘ प्रश्रचिन्ह ‘ पर समाज ने ‘ पूर्णविराम ‘ लगाना शुरू कर दिया है ? क्या ‘ पराये धन ‘ वाले ” खाली स्थान का भराव ” होने लगा है ?
सुनकर व देखकर मन ये सोंचने को मजबूर
तो जवाब हमारा समाज ही हमें देता है। जब खेलों में ओलिंपिक के दौरान भारत का राष्ट्रगान बेटियां बजवाती है। शिक्षा के क्षेत्र में बेटो से आगे बेटियां बढ़ती दिखाई देतीं है। रीसर्च के क्षेत्र में बेटों के साथ कंधे से कन्धा मिलाकर देश को आगे बढ़ाती है। लेकिन अभी भी कुछ ऐसी घटनाएं समाज में घटित हो जाती है जिनको सुनकर व देखकर मन ये सोंचने को मजबूर हो जाता है की क्या वाकई 21 वीं सदी से आगे बढ़ता भारत अपनी पुरानी व रूढ़वादी सोंच से बहार आ गया है ?
समय समय पर बदलती रहती
क्योंकि सरकारे व योजनाएं तो समय समय पर बदलती रहती है। लेकिन सबसे ज्यादा जरुरी है की हमें खुद को व अपने समाज को बेटियों के प्रति ” रोगी सोंच ” से उभारकर ” निरोगी सोंच ” करनी होगी।